Thursday, May 18, 2023

एकलव्य की कहानी |

हिन्दू ग्रंथों के अनुसार यह कहानी आज से हजारों साल पहले घटित हुई थी | यह कहानी महाभारत काल की कहानी है जब घर के पुत्रों को युवावस्था में अपने गुरु जी के आश्रम अथवा गुरुकुल में रहकर ही शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करनी हुआ करती थी | 

सभी शिष्य अपने गुरु से सच्ची श्रद्धा और ईमानदारी से शिक्षा ग्रहण करते और साथ ही साथ बाकी दिनचर्या के कामों को भी करते थे जैसे- जंगल से लकड़ी इक्खट्ठी करना, अपने गुरु के साथ भोजन सामिग्री इक्खट्ठी करना, पूजा-पाठ करना, इत्यादि | 

एकलव्य धनुष बाजी करता हुआ |
ऐसे ही एक गुरु थे गुरु द्रोणाचार्य, जिनको धनुर्विद्या में काफी ख्याति प्राप्त थी, वह पांडवों और कौरवों के भी गुरु थे और उन्होनें ही अर्जुन को इतनी बेहतरीन धनुर्विद्या दी थी कि उसने आँखों पर पट्टी होते हुए भी मछली की आँख में एकदम सटीक निशाना मारा था |

इस सब के चलते उन्होंने अर्जुन को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धनुधर्र की उपाधि से नवाजा था और यह भी कहा था कि उनका उस से ज़्यादा श्रेष्ठ शिष्य कोई और नहीं है | 

जब कौरव और पांडव राजकुमार गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा ले रहे थे तभी प्रयागराज के तटवर्ती क्षेत्र के राज्य शृंगवेरपुर के आदिवासी एवं निषाद राजा के पुत्र "एकलव्य" ने भी अपने पिताजी को गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या लेने की इच्छा जताई |

यह सुनकर राजा मायूस हो गए क्यूंकि वह जानते थे कि गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रिय और ब्राह्मण के पुत्रों को ही शिक्षा देते हैं और कभी भी किसी आदिवासी  या निषादपुत्र को शिक्षा नहीं देंगे |

लेकिन पुत्र की इच्छा के आगे विवश होकर उन्होनें अपने पुत्र को अपने एक क्षत्रिय मित्र की मदद से गुरु द्रोण के गुरुकुल भेज दिया और एकलव्य को यह नसीहत दी कि वह बस गुरू से शिक्षा ग्रहण करे और उन्हें ना बताये कि वह आदिवासी राजकुमार है |

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से क्यों मना कर दिया ?


जब एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम पहुंचा तो निषादपुत्र और एक आदिवासी राजकुमार होने के कारण उन्होंने उसे शिक्षा देने से साफ़ मना कर दिया | उनका नियम था कि वह सिर्फ क्षत्रिय और ब्राह्मण पुत्रों को ही शिक्षा प्रदान करते थे |

गुरु द्रोणाचार्य के शिक्षा देने से मना करने के बाद एकलव्य ने क्या किया ?


गुरु द्रोणाचार्य के उसे शिक्षा देने से मना करने पर वह उदास नहीं हुआ बल्कि उस ने निश्चय किया कि वह वापस अपने राज्य नहीं जाएगा बल्कि अपने गुरु को साक्षी मानकर ही निरंतर प्रयास करेगा और अच्छा धनुर्धारी बनेगा |

वह गुरु के आश्रम से दूर एक गुफा में रहने चला गया और अपने गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे ही अपना गुरु समझने लगा | वह रोज उस मूर्ति के समक्ष, बड़ी ही लगन के साथ निरंतर अभ्यास करता था |

एक दिन की बात है गुरु द्रोणाचार्य अपने सभी शिष्यों और आश्रम के एक कुत्ते के साथ वन में शिक्षा प्रदान करने पहुंचे | जब वह एकलव्य की गुफा के पास पहुंचे तो उनका कुत्ता भौंकते-भौंकते उस गुफा में चला गया |

जब कुत्ता गुफा में पहुंचा तब एकलव्य साधना कर रहा था और कुत्ते के भौंकने की आवाज से उसकी साधना में विघ्न हो रहा था तो उसने अपने धनुष से एक बाण ऐसे छोड़ा जिस से वह कुत्ते के मुँह में जा लगा परन्तु कुत्ते को एक खरोंच भी नहीं आयी, बस उसका भौंकना बंद हो गया |

एकलव्य ने कुत्ते के मुँह को इस तरह से तीर चलाकर बंद किया कि उसे कोई चोट नहीं पहुँची |

कंठ से आवाज ना निकल पाने के कारण कुत्ता जल्दी से गुरु द्रोण के पास पहुंचा जिसे देखकर खुद गुरु द्रोण और उनके सभी शिष्य भौंचक्के रह गए | वह सब सोच में पड़ गए कि इतनी बेहतरीन तीरंदाजी कौन कर सकता है |

पांडव पुत्र अर्जुन भी हैरान रह गया क्यूंकि इतनी बेहतरीन तरीके से तीरंदाजी करना तो उसे भी नहीं आता था |

वे सभी जल्दी से गुफा के अंदर चले गए ताकि ऐसे वीर धनुर्धारी को देख सकें और उसके गुरु के बारे में जान सकें |

जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को देखा तो वह चौंक गए, एकलव्य किसी वीर धनुर्धारी की तरह तीर चला रहा था | उन्होंने एकलव्य से पुछा कि उसको इतनी बेहतरीन तीरंदाजी की शिक्षा किसने दी | 

एकलव्य ने गुरु के चरण छूकर नमन किया और उन्हें वह मूर्ति दिखाई | "मेरे तो सदैव से गुरु आप ही हैं" एकलव्य ने कहा | उसने बताया कि वह उनका शिष्य एकलव्य है, और उसने उनकी मूर्ति को ही साक्षी मान कर यह शिक्षा ग्रहण की है |

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अँगूठा क्यों माँगा ?


एकलव्य की तीरंदाजी देख गुरु द्रोणाचार्य को लगा कि अब उनका अर्जुन से किया गया वचन कि वह ही दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धारी है टूट जायेगा और तो और अर्जुन उनका सर्वश्रेष्ठ शिष्य नहीं रहेगा इसलिए उन्होनें एकलव्य से कहा कि अब वह धनुर्र शिक्षा में पारंगत हो गया है, अगर वह उन्हें अपना गुरु मानता है तो वह एकलव्य से गुरु दक्षिणा लेना चाहेंगे |

एकलव्य ने कहा कि वह गुरुदक्षिणा में उन्हें अपने प्राण भी दे सकता है | इस पर गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसके हाथ का अँगूठा मांग लिया |

एकलव्य ने बिना हिचकिचाए अपना अँगूठा काट कर गुरु द्रोण के चरणों में रख दिया | अँगूठा लेकर गुरु द्रोण एकलव्य को अकेला छोड़ अपने शिष्यों के साथ वापस आश्रम चले गए | 

एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना अँगूठा काटकर क्यों दिया ?


एकलव्य अपने गुरु का बहुत ही आदर-सम्मान करता था, उसने गुरु के द्वारा उसे आश्रम में ठहराकर बाकी शिष्यों के साथ शिक्षा ना देने के बावजूद भी अपने गुरु के प्रति आदर और श्रद्धा बरकरार राखी व उनकी मूर्ति को साक्षी मानकर निरंतर प्रयास करता रहा | 

उसने अपनी इस मेहनत और काबिलियत का श्रेय अपने गुरु को ही दिया |

एकलव्य जानता था कि अगर वह अँगूठा दे देगा तो तीरंदाजी नहीं कर पायेगा मगर अपने गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा होने के कारण और गुरु-शिष्य परंपरा को भी भली-भाँती समझने के कारण उसने गुरु द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में अँगूठा दे दिया |

एकलव्य का अँगूठा कटने के बाद क्या हुआ ?


आप किसी से उसका सबकुछ छीन सकते हैं पर उसकी बुद्धिमता और काबिलियत नहीं छीन सकते !

अँगूठा जाने के बाद भी एकलव्य ने अपनी मेहनत व लगन बरक़रार रखी और तर्जिनी व मध्यमा उँगलियों की सहायता से उसने धनुष बाण चलाने में पारंगता हासिल करी | 

कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि यहीं से आधुनिक तीरंदाजी का जन्म हुआ है |

बाद में एकलव्य अपने राज्य वापस चले गए और अपने पिता के बाद गद्दी संभाली व अपने राज्य का खूब विस्तार किया |

कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि एक बार एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण किया था और वह श्री कृष्ण के हाथों मारे गए थे | 

शिक्षा- अगर हम पूरी ईमानदारी और सच्ची लगन के साथ किसी काम को करें तो उस में अवश्य सफलता मिलती है | 

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